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एथिक्स

असहिष्णु होता भारतीय समाज

  • 03 Oct 2018
  • 10 min read

वर्तमान संदर्भ

  • हाल ही में एक कन्नड़ पत्रकार गौरी लंकेश की गोली मारकर हत्या कर दी गई। यद्यपि हत्या अपने आप में एक संगीन आपराधिक कृत्य तो है ही साथ ही यह आरोप कि बहुसंख्यक मत से अलग राय रखने के कारण उनकी हत्या की गई, इसे और भी संगीन बना देता है।
  • यह अपने आप में कोई अकेली घटना नहीं है बल्कि इसकी एक  शृंखला रही है। नरेंद्र दाभोलकर, गोविद पनसारे, कलबुर्गी इत्यादि लोगों की हत्या के पीछे भी वैचारिक भिन्नता को कारण बताया जाता रहा है। फिर गोमाँस सेवन के अफवाह में अखलाक की हत्या भी इसी का एक उदाहरण था। इस प्रकार यह आरोप मज़बूत हो जाता है कि भारतीय समाज असहिष्णु होता जा रहा है।

क्या है असहिष्णुता?

  • असहिष्णुता यानी एक पक्ष द्वारा अपने से भिन्न पक्षों के विचार सुने या समझे बिना ही न सिर्फ उन्हें खारिज़ करना, बल्कि उनकी उपस्थिति को सहन करने से भी इनकार कर देना।
  • समाज सिर्फ एकसमान विचारों एवं रुचियों वाले व्यक्तियों से ही मिलकर नहीं बनता है, बल्कि उसमें विचार, खान-पान, रहन-सहन एवं व्यवहार में विविधता वाले लोगों का समायोजन होता है। यह विविधता समाज की समस्या नहीं अपितु सैकड़ों वर्षों की गौरवमयी विकास यात्रा का जीवंत दस्तावेज़ होती है, जिसमें परस्पर भिन्न सभ्यताओं एवं संस्कृतियों के बीच तमाम मतभेदों के बावजूद सह-अस्तित्व की परंपरा पनपती है और अन्तर-सांस्कृतिक मेलजोल से समाज और भी समृद्ध बनता है।
  • हालाँकि, इस तरह के विविधतापूर्ण समाजों को अनेक चुनौतियों का भी सामना करना पड़ता है और असहिष्णुता ऐसी ही एक गंभीर चुनौती है।
  • अगर हम असहिष्णुता के उद्भव के पीछे के कारणों की विवेचना करें तो पाएंगे कि किसी भी समाज में विविध प्रकार के ‘शक्ति केन्द्रों’ (विभिन्न संस्थाओं, संगठनों एवं राजनीतिक दलों) का अस्तित्व होता है।
  • चूँकि ये संरचनाएँ अपने से भिन्न विचारों, शोधों एवं ज्ञान के रूपों को सहन नहीं करना चाहतीं, इसीलिये ये समाज में स्वतंत्र अभिव्यक्तियों पर अकुंश लगाकर आलोचनात्मक जनचेतना के विकास में बाधा उत्पन्न करने का प्रयास करती हैं। यही प्रयास स्थूल (Manifest) रूप में असहिष्णुता के रूप में सामने आते हैं। दरअसल, यह रूढि़वादी चेतना का अधिनायकवादी एवं हिंसक या हिंसा समर्थक स्वरूप ही है, जिसे आम बोलचाल की भाषा में असहिष्णुता कहा जाता है।

असहिष्णुता के दुष्परिणाम

  • असहिष्णुता केवल समाज के ताने-बाने को ही छिन्न-भिन्न नहीं करती है, बल्कि इसका राष्ट्र की अर्थव्यवस्था, उसके विकास एवं अंतर्राष्ट्रीय छवि पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। आज वैश्वीकरण के युग में अंतर्राष्ट्रीय वित्त एवं व्यापार व्यवस्था में किसी भी देश की छवि का बहुत महत्त्व है। यह छवि ही अंतर्राष्ट्रीय निवेशकों को उनकी पूंजी के सुरक्षित होने को लेकर आश्वस्त करती है। रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन की सहिष्णुता बनाए रखने की गुजारिश एवं मूडीज़ द्वारा भारत में बढ़ती असहिष्णुता पर चिंता व्यक्त करने को भी इसी संदर्भ में रखकर देखने की आवश्यकता है।
  • बढ़ती असहिष्णुता राष्ट्र के अंदर चल रहे राजनीतिक विमर्श में भी भटकाव पैदा करती है। इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि भारत जैसे विकासशील राष्ट्र में जहाँ गरीबी, बढ़ती जनसंख्या और भूख इत्यादि राष्ट्रीय चिंता एवं चर्चा के विषय होने चाहियें, वहाँ खान-पान के तरीके राजकीय चुनाव का प्रमुख मुद्दा बनकर उभर रहे हैं। इससे भी दीर्घकाल में राष्ट्र की विकास यात्रा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इससे अंततः समाज में वैज्ञानिक एवं प्रगतिशील सोच को विकसित करने की कोशिशों को भी धक्का लगता है।
  • असहिष्णुता की मनोवैज्ञानिक विवेचना यह दर्शाती है कि यह मुख्यतः अनजान कारकों एवं स्थितियों के प्रति संदेह से भरे रवैये से उपजती है। ऐसी मनोवैज्ञानिक स्थिति किसी भी समाज के लिये स्वस्थ मनोदशा का प्रतीक नहीं हो सकती। साथ ही, परस्पर सद्भाव एवं सम्मान के स्थान पर प्रतियोगिता तथा द्वेष से संचालित समाज अंततः बिखराव की तरफ बढ़ने को अभिशप्त होता है। फलस्वरूप राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता को अक्षुण्ण रखने के लिये भी असहिष्णुता के स्तर को नियंत्रण में रखना बहुत आवश्यक है।

समाज की भूमिका

  • बढ़ती असहिष्णुता से निपटने या उसकी रोकथाम के लिये पूरे समाज की सम्मिलित ऊर्जा को कार्य करना होता है। इसके अभाव में समाज के बिखराव या फिर अधिनायकवादी हो जाने का खतरा मंडराता रहता है। इस प्रयास में बुद्धिजीवी वर्ग, राजनीतिक वर्ग, आम लोगों एवं पत्रकारिता सभी पर महत्त्वपूर्ण दायित्व होते हैं। बुद्धिजीवी वर्ग के अंतर्गत आने वाले इतिहासकारों, लेखकों एवं कलाकारों को समझना होगा कि असहिष्णुता का विरोध चयनात्मक (Selective) नहीं हो सकता। ऐसा होने पर न सिर्फ इतिहास लेखन एवं कला के अन्य माध्यम अपनी विश्वसनीयता खो देते हैं, बल्कि इसका लाभ प्रतिक्रियावादी ताकतें उठाती हैं जो इतिहासकारों/लेखकों की चौकस निगाहों से बचकर ही असहिष्णु समाज के निर्माण के कार्यक्रम में सफल हो सकती हैं।
  • राजनीतिज्ञों को भी परिपक्वता का परिचय देते हुए असहिष्णुता जैसे मुद्दे पर प्रतिस्पर्द्धी राजनीति से ऊपर उठकर और एक मंच पर आकर असहिष्णुता का विरोध करना होगा। यह कोई दिवास्वप्न नहीं है अपितु एक स्वस्थ लोकतंत्र की सहज संभावना है जिसमें जनता के लिये और जनता के द्वारा ही राजनीति का निर्माण होता है। आम नागरिकों को चाहिये कि वे असहिष्णुता पर आधारित राजनीति करने वालों को नकार दें ताकि एक बेहतर समाज का स्वप्न असहिष्णुता की भेंट न चढ़ जाए।
  • अंत में, सबसे महत्त्वपूर्ण ज़िम्मेदारी आज के समय में पत्रकारिता एवं जनसंचार की है। व्यक्ति एवं समाज की दिशा निर्धारित करने में सर्वाधिक महत्त्व की बात यह होती है कि कोई भी समाज किन प्रश्नों पर सबसे अधिक विचार-विमर्श करता है। जबकि, व्यक्ति से लेकर पूरे समाज के जीवन में मीडिया कई मायनों में निर्णायक भूमिका निभाता है। ऐसे में आवश्यक है कि मीडिया को स्वयं उसकी शक्ति एवं कर्त्तव्यों से वाकिफ कराया जाए। मीडिया न सिर्फ इस बात में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है कि असहिष्णुता समाज का केंद्रीय प्रश्न बने या नहीं, बल्कि यह भी कि असहिष्णुता का पूरा मुद्दा किस प्रकार से चर्चा का विषय बने।

निष्कर्ष

भारतीय संस्कृति की आत्मा में वाद-विवाद एवं संवाद की संस्कृति रची-बसी है। यहाँ मंदिरों के चबूतरों पर से चार्वाक ने वैदिक ज्ञान को चुनौती दी है, शंकराचार्य ने पूरे भारत में शास्त्रार्थ करते हुए भ्रमण किया है, सूफियों की दरगाहों पर परस्पर विरोधी बादशाह भी एक-साथ नतमस्तक होते पाए गए हैं और दयानन्द सरस्वती ने खुलेआम अपने धर्म सहित प्रत्येक धर्म की रूढि़यों पर प्रहार किया है। इसमें संदेह नहीं कि ऐसे असंख्य उदाहरण रहे हैं और उससे भी अधिक विश्वास से यह कहा जा सकता है कि इन उदाहरणों के नायकों को भी अपने हिस्से का विरोध झेलना पड़ा है। लेकिन यह विरोध असहिष्णुता के उस स्तर पर नहीं पहुँचा जहाँ अपने से भिन्न प्रत्येक आवाज़ को मिटा दिया गया हो। इसी कारण, भारत में उस गंगा-जमुनी तहज़ीब का निर्माण हो सका जिसमें दो भिन्न समुदाय देश की तकदीर की दो आँखों के रूप में माने गए। ऐसे में, आपस में एक-दूसरे के प्रति असहिष्णुता दिखाना न तो इस ज़मीन की संस्कृति की रवायत है और न ही इसके इतिहास का एक दस्तूर। तो समय की मांग यही है कि समाज में सहिष्णुता के साथ विविधता बरकरार रहे।

 

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